आर कृष्णा दास
मॉस्को में भारत के विदेश मंत्री जयशंकर और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच 10 सितंबर को बैठक हुई और उसके बाद परंपरा के अनुसार दोनो देशों की ओर से एक संयुक्त बयान जारी किया गया।
राजनयिकों के लिए संयुक्त बयान कोई आश्चर्य का विषय नहीं रहा। संयुक्त बयान में हस्ताक्षर करने के बाद भी चीन अपने करतूतों से बाज नहीं आने वाला है। लेकिन इस बैठक से एक बात साबित हो गयी और वह यह है कि चीन ने इस बार भी वही दांव लगाया लेकिन वह गलत पड़ गया।
भारत-चीन सीमा पर गतिरोध के बीच यह संयुक्त बयान पड़ोसी देश की रणनीति का एक आधार मात्र है। इस बयान में शामिल सभी बिंदु एक उचित समाधान के हेतु लिए गए एक दृढ़ संकल्प की तुलना में मात्र औपचारिकता है।
“दोनों देशों के मंत्रियों ने सहमति व्यक्त की कि दोनों पक्ष चीन-भारत सीमा मामलों पर सभी मौजूदा समझौतों और प्रोटोकॉल का पालन करेंगे, सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति बनाए रखेंगे और किसी भी ऐसी कार्रवाई से बचेंगें जो इस मामले को और आगे बढ़ा सकती है।” लेकिन चीन इस बैठक और उसमे हुए समझौते को लेकर जरा भी गंभीर नजर नही आ रहा है क्योंकि चीन ने सभी मौजूदा समझौतों का उल्लंघन किया है।
बयान के पैराग्राफ 1 के अनुसार दोनों पक्ष अपने वरिष्ठ नेताओं से भारत-चीन संबंधों को विकसित करने के लिए मार्गदर्शन लेंगे जिससे मतभेदों का जल्द से जल्द निपटारा हो सके। लेकिन इसका कोई औचित्य नही रह जाता क्योंकि मतभेदों के कारण जमीनी स्तर पर पहले ही एक गंभीर विवाद उत्पन्न हो चुका है।
उन्होंने “इस बात पर सहमति व्यक्त की कि दोनों पक्षों की सेना अपना संवाद जारी रखें, संबंधित क्षेत्र में उचित दूरी बनाए रखें और जल्द से जल्द इस समस्या का हल निकाल कर तनाव कम करें”। दिलचस्प बात यह है कि दोनो देशों के कोर कमांडर पहले ही पांच बार मिल चुके हैं और अन्य बैठकें ब्रिगेड और एरिया कमांडर के स्तर पर हुई हैं, लेकिन इन सबके उचित परिणाम नहीं मिल पाए हैं।
दोनों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि सीमावर्ती क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति किसी भी पक्ष के हित में नहीं है। चीन द्वारा इस बात पर जोर दिया गया कि भारत के साथ टकराव उसके हित में नहीं है, और चीन संघर्ष नहीं चाहता था, लेकिन भारत द्वारा उसे बाध्य किया गया था।
वास्तव में यह चीन की एक रणनीति है। उसने पहले ही ये सोच लिया था कि भारत कभी भी सक्रिय रूप से अपना बचाव नहीं करेगा और बातचीत की पेशकश करेगा। भारत कभी भी युद्ध जैसी स्थिति के पक्ष मे नहीं रहता जिसका फायदा चीन को होता रहा है और चीनियों को एक और भारतीय क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करने का मौका मिल जाता है।
रक्षा मंत्रियों के बीच बातचीत के ठीक बाद विदेश मंत्रियों की बैठक को चीन की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है। दोनों बैठक चीन के कहने पर आयोजित की गयी थी। एक ओर बैठक का प्रस्ताव देकर चीन भारत को व्यस्त रखना चाहता था ताकि उसके द्वारा कब्ज़ा किये गए भूभाग से ध्यान हट सके। चीन हमेशा से भारत के साथ सीमा विवाद को कूटनीति में उलझाता आ रहा है ।
१९६२ ओर उसके बाद भी चीन ने यही रणनीति अपनाई। भारतीय क्षेत्र में चीन की सैन्य कार्यवाही और घुसपैठ के बावजूद भारत ने जब तक संभव हो तो बातचीत से समाधान खोजने और संघर्ष से बचने के प्रयास किए हैं।
लेकिन इस बार चीन को आभास नहीं हुआ की नरेंद्र मोदी की सरकार नयी योजना के साथ काम कर रही है। भारत ने भी बातचीत के सिलसिले को तोड़ना नहीं चाहा लेकिन उसने चीन को भी यह एहसास करा दिया है कि सीमा पर कब्जे को लेकर की गई उसकी गणना गलत साबित हुई है। क्यूंकि भारत ने सीमा पर चीन को मुँह तोड़ जवाब देने से नहीं कतराया।
भारत ने बातचीत के बावजूद चीन को जमीन पर सैन्य चुनौती देने का साहस दिखाया है और इसका प्रदर्शन गालवान घाटी में हिंसक टकराव से हुआ। इसी के तहत भारत ने स्पैंगगुर गैप के सामरिक नियंत्रण को प्राप्त करने के लिए पैंगोंग त्सो के दक्षिण में पहाड़ी ऊंचाइयों पर कब्जा कर लिया है।
इस साहसिक कदम से चीन बौखला गया है, क्योंकि सामरिक दृष्टि से यह चोटी काफी महत्पूर्ण है।