फीस नियंत्रण के लिए चाहिए ठोस नियम

कोरोना महामारी ने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित किया है । और इसी महामारी के बीच, कुछ शैक्षणिक संस्थानों ने पालकों से पैसे ऐंठने की तैयारी कर ली है। ठोस नियम के अभाव में उनका उद्देश्य को सुलभ कर दिया है।

हाल ही में, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने स्कूल प्रबंधन और अभिभावकों के बीच चल रहे विवाद के समाधान के लिए एक आदेश पारित किया है। इस संबंध में याचिकाकर्ता बिलासपुर स्थित निजी स्कूल प्रबंधन संघ था।

इस आदेश के अनुसार जब तक कोविड 19 से सम्बंधित स्थिति सामान्य नहीं होती तब तक स्कूलों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे केवल ट्यूशन फीस ही लेंगे और इसके अलावा कोई अन्य शुल्क नहीं।

दिलचस्प बात यह है कि छत्तीसगढ़ में कई शैक्षणिक संस्थान हर दो या तीन महीने में फीस के नाम पर माता-पिता से पैसा इकट्ठा कर रही है। लेकिन आश्चर्य यह है कि इस बात का उल्लेख तक नहीं है ही वह किस मद में प्राप्त की जा रही है। शैक्षणिक संस्थानों द्वारा ली जा रही राशि बड़ी है और यदि यह केवल ट्यूशन फीस के तौर पर ली जाती है, तो वो केवल नाममात्र की राशि
होती।

और यही अभिभावकों और प्रबंधन के बीच विवाद उत्पन कर रहा है। राज्य सरकार को चाहिए था कि वह यह सुनिश्चित करती कि अभिभावकों से ली जा रही राशि टूशन मद की है और इसका स्पष्ट उल्लेख रसीद में किया गया है।

छत्तीसगढ़ सरकार के नियमों में ही कई खामियां हैं। अभी पिछले विधानसभा सत्र में ही छत्तीसगढ़ निजी स्कूल शुल्क विनियमन विधेयक 2020 पारित किया गया है। विडंबना यह है कि विधेयक में ट्यूशन फीस क्या है यह बताया ही नहीं गया अर्थात ट्यूशन फीस को ही परिभाषित नहीं किया गया।

इसमें स्वायत्तता और पारदर्शिता का अभाव है जिसके परिणामस्वरूप अभिभावकों और स्कूल प्रबंधन के बीच लगातार झड़पें होती रहेंगी और अंत में विवाद अदालत तक पहुंच जाता है।

इस प्रमुख कार्य हेतु बनने वाली त्रिस्तरीय समिति में भी कई दोष नज़र आ रहें हैं क्योंकि इस समिति में भी पालकों का प्रभाव कम ही रहने वाला है। इस समिति में पालकों के प्रतिनिधि को सरकार और स्कूल द्वारा ही नामित किया जाएगा। ये चुने हुए प्रतिनिधि को कलेक्टर बिना किसी कारण का हवाला दिए हटा सकता है। ऐसे में कोई प्रतिनिधि बिना दबाव के काम करे ये संभव
नही है।

राज्य सरकार को चाहिए था कि सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र या स्वायत्त प्राधिकरण का गठन करती जो अभिभावकों और स्कूल प्रबंधन से संबंधित सभी विवादों में उचित निर्णय करती । ऐसा न करते हुआ सरकार ये अधिकार स्वयं अपने पास रखी है और विवादों का निपटारा स्वयं करेगी।

नियमो में जो है खामियां है उसे स्कूल प्रबंधन एक अवसर के रूप में देख रहा हैं, क्योंकि देश भर में स्कूलों द्वारा चलाई जा रही वर्चुअल क्लास या डिजिटल कॉल में पढ़ाई कराने की वजह से स्कूल प्रबंधन पालकों से मोटी फीस जमा करा रहे है।

आठ राज्यों के अभिभावकों ने कोरोनो वायरस लॉकडाउन के दौरान निजी स्कूलों द्वारा ली जा रही उल्टी सीधी फीस के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

अभिभावक तो परेशान हो ही रहे है , समाज में सम्मानीय शिक्षक भी इससे अछूते नहीं है। जो शिक्षक बच्चों के भविष्य बनाने के लिए दिन रात एक करते है उनके लिए प्रबंधन के पास कोई आदर्श और नियम नहीं है।

छात्रों से पूरी फीस वसूल की जा रही है, लेकिन अधिकांश शैक्षणिक संस्थान शिक्षकों को आधा वेतन ही दे रहे हैं। कई संस्थानों ने तो उन्हें कार्य निवृत भी कर दिया।

गुजरात की घटना से कुछ संस्थानों के अड़ियल रवैये का पता चलता है। जब राज्य सरकार ने निजी स्कूलों को लॉकडाउन अवधि के लिए शुल्क नहीं लेने के लिए कहा, तो अधिकांश ने ऑनलाइन कक्षाओं को ही निलंबित कर दिया।

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