रोज की तरह रात के करीब 11 बजे मुंबई में एक पत्रकार लोकल ट्रेन से उतरकर अपने कमरे की ओर आगे बढ़ रहा था। अचानक शुरु हुई मूसलाधार बारिश से बचने के लिये वह एक शेड के नीचे पहुचा ही था कि इतने में फोन की घंटी बजने लगी।
संपादक का कॉल था तो लगा अगले दिन का असाइनमेंट होगा। संपादक लॉक डाउन में मीडिया समूहों का खस्ताहाल बताने लगे और अंत मे कह दिया आपका सफर संस्था के साथ यही समाप्त होता है और फोन रख दिया।
स्तब्ध पत्रकार जो लगभग बीस वर्षो से उस संस्थान से जुड़ा हुआ था कभी सोचा नही था इस संकट के दौर में ये हश्र होगा। और वह भी दिनभर नौकरी करने के बाद जब वापस घर आ रहा हो।
यकीन मानिए वह अकेला पत्रकार नहीं है जिसका ये हाल हुआ है, देश भर के कई और भी पत्रकार इस तरह के कॉल आने के डर के साथ जी रहे हैं। फिर भी अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ कर रहे हैं।
सम्भवता करोना एक अस्त्र बनकर आया है जिसकी आड़ में वे आसानी से पत्रकारों को लक्ष्य बनाया जा रहा है।
पत्रकारों की दुर्दशा का पर्दा उस समय उठ गया जब रांची में रहस्यम परिस्थितियों में एक वरिष्ठ पत्रकार ने आत्महत्या कर ली। समाचार एजेंसी के लिए काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार पी वी रामानुजम ने 13 अगस्त को अपने कार्यालय-सह-निवास में आत्महत्या कर ली ।यह एक दुखद घटना थी।
परिवार और दोस्तों ने कहा कि वह अत्यधिक “कार्य” के दबाव में था। उसने ट्रांसफर की गुहार लगाई थी लेकिन मंजूर नही की गई। उनके साथ काम करने वालों ने पूरे विश्वास के साथ दावा किया कि रामानुजम ऐसा कठोर कदम कभी नही उठा सकते थे । पर इस बार वो दबाव नही सह पाए ।
विडंबना यह है कि हम पत्रकार सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने में लगे है, वही सुप्रीम कोर्ट फिल्म सितारे के मृत्यु पर संज्ञान ले रही है; राजनेता अपने राजनीति में लगे हुआ है। लेकिन एक पत्रकार की सुध किसी को नही है। कोई यह नहीं जानना चाहता कि किन परिस्थितियों में या किस पत्रकार ने अपना जीवन समाप्त किया।
अब सवाल यह उठता है कि क्या मीडिया घराना वास्तव में संकट में है। आज अधिकांश मीडिया संस्थान बड़े कॉर्पोरेट के द्वारा संचालित हो रही है। करोना के कारण व्यापार पर असर पड़ा है। लेकिन, जब इस्तिथि सामान्य हो जाएगी, यही कॉर्पोरेट समूह अरबो का लाभ लेंगे।
ये समूह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बात पर क्रियान्वयन कर रहे है और करोना का असर को लाभ में परिवर्तित करने में लगे है। लेकिन जब प्रधानमंत्री ने कहा की लोगो लो नौकरी से ना निकले तो शायद उसे नज़रअंदाज़ करना बेहतर समझा। दुर्भाग्य, सरकार भी इस बात की संज्ञान नहीं ले रही है जबकि लोगो का बेरोज़गार होने का नकारात्मक असर उसे उठाना पड़ सकता है।
कई मीडिया कारोबारी घरानों पत्रकारिता की आड़ में कई संपत्ति अर्जित की। बिना किसी डर के और मीडिया के प्रभाव से ये राजनेताओं और सरकार को अपने प्रभाव में रखे रहे।
पत्रकारिता के आड़ में ये घराने पीछे कई वर्षो से बड़ा मुनाफा कमा रहे है। क्या इनकी इस्थिति इतने भी अच्छी नहीं है की ये अपने कर्मचारियों को तीन चार महीने वेतन दे सके। नौकरी चले जाने से ज्यादा कठिन वेतन कम देकर काम करवाना है क्यूंकि इस इस्थिति में कर्मचारी ना तो जी सकता है ना ही मर।
पत्रकारिता के आड़ में ये समूह जो दूसरे कार्य कर रहे है यदि उसका एक छोटा सा अंश भी लगा देते तो शायद हज़ारो पत्रकारों में से एक को भी नौकरी से नहीं निकला जाता।
बेबस संपादक भी प्रबंधक के आगे नतमस्तक होने को मज़बूर है। देश में सम्भवता एक भी संपादक नहीं होगा जो अपने पत्रकार को बचाने का प्रयास किया हो या विरोध में स्वयं त्यागपत्र दिया हो।