आर कृष्णा दास
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला शायद मकबूल शेरवानी की वीर गाथा को याद करना पसंद नहीं करेंगे जो उनकी अपनी पार्टी का ही एक कार्यकर्ता था और जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच हुए 1947 के युद्ध का रुख़ ही बदल दिया था।
और ये सिर्फ इसलिए क्यूंकि मकबूल शेरवानी कश्मीर को भारत से अलग नहीं होने देना चाहते थे।
नेशनल कांफ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्लाह, जो भारत सरकार में मंत्री बनने के लिए कभी नहीं हिचकिचाए, अब अलगाववाद की वकालत कर रहे हैं। वे कश्मीर का चीन में विलय की संभावनाएँ देख रहे है और राज्य को देश के बाकी हिस्सों से अलग रखने का विशेष दर्जा वापस देने की वकालत कर रहे हैं।
अब्दुल्ला या अन्य कश्मीरी नेताओं के विचार एक सामान ही नजर आ रहे हैं, जो कि मकबूल शेरवानी का घोर अपमान है , जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान सिर्फ इसलिए दिया ताकि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना रह सके।
1947 में , युवा मोहम्मद मकबूल शेरवानी सिर्फ 19 साल के थे, जब उन्होंने बारामूला पर हमला करने वाले हजारों हमलावरों (कबाइलियों) को अकेले ही परेशान कर दिया था,उन्होंने भारतीय सेना को श्रीनगर में पैठ जमाने और हमलावरों को पीछे धकेलने में मुख्य भूमिका निभाई थी।
22 अक्टूबर 1947 को जब पाकिस्तानी सेना की मदद से कबाइलियों ने बारामूला पर हमला किया तब शेरवानी ने अपनी बाइक पर जाकर कबाईलियों से कहा कि वे श्रीनगर की ओर न जाएं क्योंकि भारतीय सेना बारामूला के बाहरी इलाकों तक पहुँच चुकी है। उसका ये झूठ काम कर गया और इससे भारतीय सेना को मोर्चा सम्हालने में मदद मिली जिसकी वजह से दुश्मन को चार दिनों तक अपनी जगह से हिलने का मौका नहीं मिला।
जब पाकिस्तानी कबाइलियों को शेरवानी की योजना के बारे में पता चला, तो उन्होंने उसे गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और भारतीय सेना ने महत्वपूर्ण बढ़त बना ली थी। लेकिन उसे मारने से पहले हमलावरों ने उन्हें पकड़ लिया था और अपने साथ शामिल होने और भारतीय सेना से संबंधित जानकारी को उनके साथ साझा करने की पेशकश की।
शेरवानी ने इससे इनकार कर दिया, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह नहीं चाहता था कि कश्मीर भारत से अलग हो जाए।
शेरवानी के इस साहसिक कार्य ने सेना को श्रीनगर के पास शालटेंग के ऐतिहासिक युद्ध की तैयारी के लिए कीमती समय दिया। इस युद्ध में 700 से अधिक हमलावर मारे गए। शेरवानी के योगदान ने 1947 का माहौल ही बदल दिया और भारत के पक्ष को और मजबूत कर दिया।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, कबालीयों ने अधमरे शेरवानी को पेट्रोल टैंक के पास एक लकड़ी पर लटका दिया था, उसके शरीर पर चोट के कई निशान थे ।
8 नवंबर, 1947 को बारामूला से हमलावरों को खदेड़ दिया गया। इसके बाद वहां के लोगो ने सबसे पहले शेरवानी के मृत शरीर को दफनाया। भारतीय सेना ने पूरे सैन्य सम्मान के साथ शेरवानी को बारामूला जामा मस्जिद के कब्रिस्तान में दफनाया था।
बचपन से ही मकबूल, शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की पार्टी के लिए समर्पित कार्यकर्ता थे। जब मोहम्मद अली जिन्ना ने कश्मीर का दौरा किया था और अपने दो-राष्ट्र ’ वाले सिद्धांत पर बारामूला में बात की, तो शेरवानी ने उन्हें मंच से नीचे आने और उनका भाषण रोकने के लिए मजबूर कर दिया था।
1939 में शेख अब्दुल्ला द्वारा ऑल जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थापना के बाद से ही मकबूल शेरवानी उनके कट्टर समर्थक थे। मकबूल की रिश्तेदारों की अनुसार “जब मकबूल की हत्या की गई, तो उसके पिता मोहम्मद अब्दुल्ला शेरवानी ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला से मुलाकात की और अपने दूसरे बेटे के लिए मदद मांगी थी, उस वक़्त शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने उनकी बिल्कुल परवाह नहीं की थी।”
अब्दुल्ला परिवार कश्मीरी लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करता है, लेकिन जब शेरवानी परिवार की मदद करने की बात आई, तो उन्होंने उन्हें अनदेखा कर दिया।
जिस कश्मीर को मकबूल ने बचाया उसी कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ़्ती केवल निजी स्वार्थ की राजनीतिक कर रहे है। क्यूंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए कभी भी मकबूल के इस साहसिक कार्य का न तो सम्मान किया न ही इस वीर जवान को कभी याद किया।
भारतीय सेना हर साल अपने इन्फेंट्री दिवस पर कश्मीर की रक्षा करने वाले मोहम्मद मकबूल शेरवानी को याद करती है। सेना द्वारा बारामूला शहर में उनके नाम पर एक मेमोरियल हॉल भी बनवाया गया है।