आर कृष्ण दास
आज से लगभग तीन दशक पहले, अगर एक आकांक्षी युवा से पूछा जाता था कि वह क्या बनना चाहता है; तो तुरंत जवाब आता था – टाटा या बिड़ला। ये दोनों लंबे समय तक भारतीय कॉरपोरेट के पर्याय थे और जनता में बहुत सम्मान के साथ देखे जाते थे।
तीन दशकों के बाद, निजी क्षेत्र के दो अन्य उपक्रम उभरे तथा विश्व अर्थव्यवस्था में अपने लिए और भारत के लिए खास जगह बनायी है। लेकिन जान-बूझकर, एक योजना के तहत, उनकी छवि को खराब करने के एकमात्र उद्देश्य से इन्हें विशेष रूप से निशाने पर लिया गया।
कहा जाता है कि 10 संगठित कैडरों का एक समूह एक अरब असंगठित लोगों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होता है। और जब भारतीय अर्थव्यवस्था प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक बड़ी छलांग ले रही है, उस समय यह एक नई चुनौती है जिसका मुकेश अंबानी और गौतम अदाणी के नेतृत्व में काम करने वाले दो कॉरपोरेट सामना कर रहे हैं।
भारत के स्वदेशी व्यवसायों को चोट पहुंचाने वाले और अंतर्राष्ट्रीय शक्ति के प्रभाव में एक विशेष समूह जनता को शैक्षणिक और आर्थिक नजरिये के बजाय राजनीतिक भाषा में निजीकरण का मतलब समझा रहा है। इस बात पर बहस हो सकती है कि कितना निजीकरण देश के लिए अच्छा है या बुरा है; लेकिन इस पर कोई बहस नहीं हो सकती कि इस मॉडल का नतीजा मजबूत आर्थिक विकास है।
1947 में जब भारत आजाद हुआ था, तब उसके पास पुराने ढर्रे की आर्थिक नीति थी। छोटे व्यापारिक घरानों के लिए कंपनी शुरू करने और भारत के विकास में अपना योगदान देने के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं थी। सभी व्यवसाय सरकार चला रही थी। देश में रूस से लिया गया समाजवादी मॉडल लागू था, जिसमें प्राइवेट कंपनी के लिए कोई खास जगह नहीं थी। यह ट्रेंड लंबे समय तक चलता रहा लेकिन लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया।
90 के दशक की शुरुआत में हुए खाड़ी युद्ध ने भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। तत्कालीन प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण (एलपीजी) मॉडल के सहारे अर्थव्यवस्था को खोल दिया। विदेशी और निजी कंपनियों के प्रवेश से भारत में आर्थिक सुधार की शुरुआत हुई। जनता को सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार वाले बाजार में, बेहतर सेवा के अलावा एक विकल्प भी मिला।
उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ की राजधानी के बाहरी इलाके में बसी एक कॉलोनी में लैंडलाइन टेलीफोन सुविधा नहीं थी। लोगों ने दूरसंचार मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया। विभाग सिर्फ एक ही बहाना बनाता रहा कि क्षेत्र में व्यवहार्यता (फिजीबिलिटी) नहीं है। लोगों ने फिर से एक ज्ञापन तैयार किया और बीएसएनएल को सूचित किया कि 500 ग्राहक बुकिंग करने के लिए तैयार हैं, लेकिन विभाग ने साफ मना कर दिया जबकि उसे मात्र एक किलोमीटर केबल लाइन खींचना था।
निजी कंपनियों ने कॉलोनी को टेलीफोन संपर्क बनाए रखने में मदद की। अब, क्या कोई यह बता सकता है कि निजी कंपनियों के टेलीकॉम टावरों को नष्ट करना या रिलायंस जियो के बहिष्कार के लिए अभियान चलाना सार्वजनिक हित में था? क्या लोगों को उस युग में चले जाना चाहिए, जिसमें श्राद्ध कार्यक्रम पूरा हो जाने के बाद, मृत्यु का संदेश देने वाला टेलीग्राम मिला करता था ?
इसी तरह, केरल में कम्युनिस्ट सरकार और उसके कैडर ने तिरुवनंतपुरम एयरपोर्ट के निजीकरण को लेकर जोरदार हल्ला मचाया था। सबसे बड़ी बोली लगाने वाले अदाणी ग्रुप को रोकने के लिए, केरल सरकार ने यहाँ तक एयरपोर्ट चलाने की पेशकश भी कर डाली जबकि वह राज्य परिवहन निगम की बसों का ही सफल संचालन नहीं कर पा रही है । हताशा इतनी अधिक थी कि राज्य सरकार के पास फंड न होते हुए भी उसने बोली लगायी, और असफल रही।
लोगो को समझना चाहिए कि वर्त्तमान अर्थव्यवस्ता में कारोबार में शामिल निजी कंपनियां आबंटन के बजाय नीलामी के कारण फल-फूल रही हैं। अंबानी और अदाणी उदाहरण हैं। उनके खिलाफ चल रहे अभियान के पीछे की जोड़तोड़ को समझने की जरूरत है।
रेलवे के निजीकरण के विरोध में दिया जाने वाला कोई तर्क नया नहीं है। सिर्फ 5 फीसदी ट्रेनें निजी हाथों में जायेंगी और वह भी उन समूहों में जहां सेवाएं बेहद खराब थीं। यह वही मॉडल है जिसे जापान ने लागू किया था और इसलिए विरोध में अभियान चलाने वालों का यह दावा करना सही नहीं है कि रेलवे का निजीकरण कई देशों में विफल रहा है।
अभियान न तो निजीकरण के खिलाफ है और न ही नीति का। यह उन लोगों के खिलाफ है जिनके खिलाफ एक संगठित समूह की अपनी सोच है। इसे पिछले छह वर्षों के दौरान की गतिविधियों में देखा जा सकता है। 80 और 90 के दशक में कई निजी उद्योगों के प्रसार के दौरान कोई पर्यावरणीय समस्या या अधिकारों के उल्लंघन की कोई समस्या सामने नहीं आयी।
कुछ उद्योगपतियों को ध्यान में रख कर अभियान चलाना पूरी उद्योग समूह के लिए भी अच्छा नहीं है। यदि उद्योग के खिलाफ वैचारिक विरोध जारी रहा, तो इससे एक नया परंपरा स्थापित होगा जो कई कॉरपोरेट घरानों को मुसीबत में डाल सकता है, जिनका सीधा संबंध उस राजनीतिक दल से है, जिसने देश पर लंबे समय तक शासन किया।
इस पर गंभीरता से विचार करना होगा; क्या ये आंदोलन कुछ खास उद्योगों को निशाने पर ले कर पूरे भारत की अर्थव्यवस्ता को कमजोर करने का है।
अगली रणनीति के तहत अभियान चलाने वाले अब एकाधिकार और उसके बाद में मूल्य वृद्धि के मुद्दों को उठाकर एक अंतिम हमला करेंगे। लोगो को समझना होगा कि सरकार के पास बड़ा अस्त्र होता है और वह प्राइस कैपिंग या मूल्य नियंत्रण के अधिकार का उपयोग कर सकती है।
आखिरकार, कॉरपोरेट व्यवसाय करने के लिए हैं और वह वही मूल्य रखेगा जो उपभोक्ता की जेब के अनुकूल हो। इसलिए शायद भारत में मोबाइल को 10 रुपये में भी रिचार्ज किया जा सकते हैं।