छांदोग्य उपनिषद में एक कथा है। आप भी सुनिए।
संजीव गुप्ता
बात उन दिनों की है जब भारत में गुरुकुल परंपरा थी और शिष्य गुरु के समीप बैठकर शिक्षा ग्रहण करता था। इन शिष्यों में एक था सत्यकाम जबाला।
सत्यकाम जब बालक था तब अक्सर अपनी मां जबाला से प्रश्न करता था कि उसे शिक्षा कब से दी जाएगी और कौन से आचार्य उसे शिक्षा देंगे। मां बालक सत्यकाम के सवालों का जवाब नहीं दे पाती और चुप रहती। बालक सत्यकाम अपने करीब के लोगों से कई सवाल करता और सभी उसके सवालों से निरूत्तर हो जाते।
बालक सत्यकाम को गुरु की प्रतीक्षा थी और उसकी मां जबाला को अपने बेटे के सवालों के जवाबों की। समय बीतता गया और एक दिन जब सत्यकाम को जानकारी मिली कि वहां प्रसिद्ध ऋषि गौतम आए हुए हैं तब सत्यकाम उनके समीप जाता है और गौतम ऋषि को दंडवत प्रणाम कर कहता है कि वह उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करें।
बालक के इस अनुरोध पर गौतम ऋषि बालक से उसका गोत्र और कुल पूछते हैं। तब बालक सत्यकाम अपनी मां जबाला के पास जाकर पूछता है कि उसका कुल कौन सा है और उसका गोत्र क्या है? सत्यकाम के इस सवाल के जवाब में जबाला कहती है — मैं एक दासी हूं और अपना जीवन निर्वाह करने के लिए अनेक घरों में काम की हूं। इस दौरान तेरा जन्म हुआ है। इसलिए मैं तेरा गोत्र नहीं बता सकती हूं। मेरा नाम जबाला है और तू सत्यकाम है। तू अपने आचार्य को अपना नाम सत्यकाम जबाला बताना।
अपनी मां के इस जवाब के बाद सत्यकाम गौतम ऋषि के समीप पहुंचता है और मां के जवाब को दोहरा देता है। बालक सत्यकाम के जवाब को सुनकर गौतम ऋषि प्रभावित हो कहते हैं — तुम्हारी माता और तुमने अपनी सच्चाई को छुपाने का प्रयास नहीं किया और निर्भय होकर सत्य कह दिया। एक ब्रह्म ही इतना सत्य कह सकता है। गौतम ऋषि ने कहा कि जो व्यक्ति सत्य के मार्ग पर निर्भय होकर बिना विचलित हुए चल सकता है वही शिक्षा का अधिकारी होता है।
इसके बाद गौतम ऋषि ने सत्यकाम को अपना शिष्य स्वीकार कर उसका उपनयन संस्कार किया। यह महान सनातन परंपरा का छोटा उदाहरण है और उस कुर्तक का जवाब है जिसमें अक्सर कहा जाता है कि सनातन धर्म में पहले कुछ लोगों को ही शिक्षा का अधिकार था।
यदि आपको आधुनिक भारत में रहने का घमंड है तब क्या आज यह संभव है एक गरीब बालक देश के ख्यातिनाम स्कूलों में जिसकी सालाना फीस ही लाखों रुपयों में है वहां पढ़ सकता है। आप जरूर ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून की बात कहेंगे लेकिन उसका क्या हश्र हो रहा है, किसी से छुपा नहीं है। आजादी के बाद देश को जब आधुनिक बनाने की शुरुआत हुई तब स्वाभाविक रूप से सबसे महत्वपूर्ण इकाई शिक्षा को अपने हाल में छोड़ दिया गया तथा उसे निजी हाथों में सौंप दिया गया।
इससे समाज में एक विकृति पैदा हुई और समाज भारी भरकम फीस देकर फाइव स्टार अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों और भवन विहीन, साधन विहीन सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले गरीब छात्रों के बीच बंट गया। जब सभी के लिए समान अधिकार की मूल भावना लेकर संविधान की रचना की गई तब समाज में पैसे के दम पर महंगे स्कूल में पढ़ाई का द्वार क्यों खोल दिया गया और सरकार अपने दायित्व से क्यों पीछे रह गई।
आज यह देश दो हिस्सों में बंटा हुआ है, जिसके एक हिस्से को इंडिया और दूसरे हिस्से को भारत कहते हैं, उसे एक करने के लिए शुरुआत शिक्षा से ही करनी होगी। इससे राष्ट्रीय चरित्र का भी विकास होगा। वहीं राष्ट्रीय चरित्र जिसमें कहा गया है ‘ जो सत्य के मार्ग पर निर्भय होकर बिना विचलित हुए चल सकता है वही शिक्षा का अधिकारी होता है।
(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार है)
सटीक कटाक्ष पर सिर्फ़ बात करने के लिए क्योंकि व्यवस्था को बदलने के लिए एक सजग और निस्वार्थ समाज की आवश्यकता होतीहै , जो आज कहीं दिखायी नहीं देता । इसलिए आवश्यक यह होगा की नयी व्यवस्था को किस तरह हम पुरानी व्यवस्था के समकक्ष खड़ा कर सकते हैं इस पर प्रयास किया जाए।