आर कृष्णा दास
जिस तरफ भारतीय वायु सेना (IAF) के विमान 16 दिसंबर, 1971 को ढाका के ऊपर मंडरा रहे थे, पाकिस्तानी सैनिकों और समर्थकों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
पिछली घटनाओं के विपरीत, उस पर जमीन से एक भी गोली नहीं दागी गई। वह सबसे विचित्र दृश्य था।
पहली कुछ उड़ानें काफी ऊंचाई पर थी लेकिन जल्द ही विमानों ने नीचे और नीचे उड़ान भरना शुरू कर दिया जब तक कि लोग पायलटों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सके। अचानक विमानों से बड़ी संख्या में पर्चे फेंके गए।
अंग्रेजी, बंगाली और उर्दू में छपे पत्रक में जनता को दोपहर रमना रेसकोर्स मैदान में आमंत्रित किया गया था जहां पाकिस्तान सेना आत्मसमर्पण करने वाली थी। पिछले कुछ महीनो में यही सेना बांग्लादेश में आतंक का पर्याय बन चुकी थी जिसने लाखों निर्दोष बंगालियों को मार डाला और असंख्य महिलाओं पर अत्याचार किये।
भारत सरकार ने पाकिस्तान को निर्दोष नागरिकों पर अत्याचार बंद करने और भारत आए शरणार्थियों को वापस लेने की सलाह दी। पाकिस्तान ने कोई जवाब नहीं दिया। मजबूर होकर भारत को युद्ध छेड़ना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद हालांकि संघर्ष विराम हो गया लेकिन भारत ने पाकिस्तानी अधिकारियों, सैनिकों को आत्मसमर्पण करने मजबूर कर दिया।
अगर ऐसा नहीं होता तो 17 दिसंबर 1971 को मुक्ति वाहिनी (लिबरेशन आर्मी) के लड़ाकों ने पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों और जवानों का कत्लेआम कर दिया होता। पाकिस्तानी सेना को 93,000 से अधिक सैनिकों को “बचाने” के लिए भारतीय सेना का आभारी होना चाहिए क्योंकि उग्र लड़ाके बंगालियों पर किए गए अमानवीय अत्याचारों को देखते हुए उन्हें बख्शने के मूड में नहीं थे।
दरअसल भारतीय सेना ने पाकिस्तानी कमांडरों को काफी पहले ही आगाह कर दिया था। जब आत्मसमर्पण के लिए संघर्ष विराम के बाद कागजी कार्रवाई चल रही थी, लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी ने पहली नज़र में मेजर जनरल (बाद में लेफ्टिनेंट जनरल) जेएफआर जैकब द्वारा दिए गए दस्तावेज़ को खारिज कर दिया, जिसमें बिना शर्त लेकिन सम्मानजनक आत्मसमर्पण का आह्वान किया गया था।
नियाज़ी केवल युद्धविराम पर चर्चा करने पर जोर दे रहे थे। उनके सलाहकार मेजर जनरल जमशेद, रियर एडमिरल शरीफ, एयर कमोडोर इमाम और एयर कमोडोर फरमान अली ने उन्हें आत्मसमर्पण के लिए सहमत नहीं होने का सुझाव दिया।
मेजर जनरल जैकब ने उन्हें बताया कि आत्मसमर्पण जेनेवा समझौते के अनुरूप पूरी गरिमा के साथ होगा और बाद में उन्हें पश्चिम पाकिस्तान सुरक्षित भेज दिया जायेगा। उन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ मुक्ति वाहिनी और बांग्लादेश के लोगों द्वारा हिंसक प्रतिक्रिया की संभावना पर स्पष्ट रूप से संकेत दिया था। भारतीय सुरक्षा बलों के संरक्षण के बिना पाकिस्तानी सैनिकों अब बांग्लादेश में सुरक्षित नहीं थे।
मेजर जनरल जैकब ने कहा कि यदि शर्तों पर सहमति नहीं होती है तो आक्रामक तुरंत फिर से शुरू हो जाएगा और मुक्ति वाहिनी के लड़ाके उन्हें बेदखल करने के लिए तैयार थे। उसने नियाज़ी को निर्णय लेने के लिए तीस मिनट का समय दिया और अपने कार्यालय से बाहर चले गए।
नियाज़ी को बाद में एहसास हुआ कि उसने आत्मसमर्पण करके कोई गलती नहीं की।
16 दिसंबर की दोपहर में जिज्ञासु और आशावान बंगाली रेस कोर्स के लिए उमड़ पड़े। लाखों बंगालियों ने ‘जॉय बांग्ला’ और ‘जय हिंद’ के नारे लगाए वही नियाज़ी ने समर्पण के समझौते पर हस्ताक्षर किए और अपनी पिस्तौल जनरल अरोड़ा को सौंप दी। पूर्वी पाकिस्तान समाप्त हो गया और बांग्लादेश का जन्म हुआ।
समारोह के अंत में रेस कोर्स से बाहर निकलने वाली भीड़ जोश में थी। आजादी के उल्लास ने भीड़ को मदहोश कर दिया। ‘जॉय बांग्ला’ के नारे अब ‘पाकिस्तानियों को मार डालो’ में बदल गए।
जैसे ही अँधेरा हुआ पश्चिमी पाकिस्तानियों के रहने वाले कॉलोनियों में जोरदार हलचल सुनाई दी। लोगों ने जो देखा, उससे वे दहशत से भर गए। बांस की डंडियों और चमड़े के चाबुकों को लहराते हुए बड़ी अनियंत्रित और ग़ुस्सायी मुक्ति वाहिनी भीड़ घरों की ओर आ रही थी। उनके चेहरे पर घृणा और रोष साफ़ दिख रहा था।
वे एक उन्माद में थे, ‘जॉय बांग्ला, पाकिस्तानियों को मारो, देशद्रोहियों को मार डालो’ के नारे लगा रहे थे। रात भर चले नरसंहारों में कई लोग मारे गए। अगले दिन, 17 दिसंबर, पाकिस्तानी सैनिकों को निशाना बनाने का था।
लेकिन किसी ने भी पाकिस्तानी सैनिकों को छूने की भी हिम्मत नहीं की क्योंकि वे भारतीय सेना की सुरक्षित हाथो में थे।
ढाका को लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह को सौंप दिया गया था और जनरल नियाज़ी को सुरक्षित कलकत्ता लाया गया वही शेष पाकिस्तानी सैनिकों को सुरक्षित युद्ध बंदी (POW) शिविरों में भेज दिया गया जहा से बाद में वे अपने देश जा सके।