
नव ठाकुरीया
बांग्लादेश एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता, वैचारिक ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक तनाव के कठिन दौर से गुजर रहा है। युवा कट्टरपंथी नेता शरीफ उस्मान बिन हादी की मौत के बाद देश में भारत-विरोधी बयानबाज़ी और हिंसक घटनाओं ने जिस तरह गति पकड़ी, उसने न केवल बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति को प्रभावित किया, बल्कि भारत-बांग्लादेश संबंधों को भी गंभीर दबाव में डाल दिया। यह सब ऐसे समय हो रहा है, जब यह मुस्लिम-बहुल देश 12 फरवरी 2026 को प्रस्तावित आम चुनावों की तैयारी कर रहा है।
ये चुनाव इसलिए भी असाधारण रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि जुलाई–अगस्त 2024 में छात्रों के नेतृत्व वाले बड़े पैमाने के विद्रोह के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। इस आंदोलन के दौरान हुई हिंसा में नाबालिगों सहित 1400 से अधिक लोगों की मौत हुई, जिसके लिए बांग्लादेशी अदालत ने शेख हसीना को मानवता के खिलाफ अपराधों का दोषी ठहराते हुए मौत की सज़ा सुनाई। इसके बावजूद, शेख हसीना और अवामी लीग के हजारों नेता–कार्यकर्ता आज भी पड़ोसी भारत में शरण लिए हुए हैं।
ढाका में नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार बनने के बाद से ही नई दिल्ली पर दबाव डाला जा रहा है कि वह 2013 की प्रत्यर्पण संधि के तहत शेख हसीना को बांग्लादेश को सौंपे। लेकिन भारत ने अब तक इस पर कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है। इसी वजह से दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्तों में तल्ख़ी बढ़ी है और द्विपक्षीय विश्वास लगातार कमजोर हुआ है।
हादी की हत्या के बाद हालात और बिगड़ गए। यह अफवाह तेज़ी से फैली कि हमलावर घटना के तुरंत बाद भारतीय सीमा में दाख़िल हो गए। मुख्य आरोपी फैसल करीम मसूद, जो अवामी लीग की छात्र शाखा छात्र लीग से जुड़ा बताया जाता है, अब तक फरार है। बिना किसी ठोस सबूत के बांग्लादेश के एक बड़े वर्ग ने यह मान लिया कि उसे भारत से संरक्षण मिल रहा है। इस धारणा ने भारत-विरोधी भावनाओं को हवा दी और इसका सीधा असर देश के हिंदू समुदाय पर पड़ा।
18 दिसंबर को मैमनसिंह ज़िले के भालुका इलाके में 27 वर्षीय कपड़ा मज़दूर दीपू चंद्र दास की भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। आरोप था कि उसने इस्लाम के खिलाफ कथित आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इससे कुछ दिन पहले, 13 दिसंबर को रंगपुर में 45 वर्षीय किराना दुकानदार उत्तम कुमार बर्मन की भी इसी तरह ईशनिंदा के आरोप में हत्या कर दी गई थी। इन घटनाओं ने भारत में गहरा आक्रोश पैदा किया और कई शहरों में बांग्लादेशी राजनयिक मिशनों के सामने विरोध प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग उठाई।
अंतरिम सरकार ने इन हत्याओं को जघन्य आपराधिक कृत्य बताते हुए किसी भी तरह के औचित्य से इनकार किया। शिक्षा सलाहकार प्रो. सी. आर. अबरार ने दीपू चंद्र दास के परिवार से मुलाकात कर सरकार की संवेदना व्यक्त की और कानून के शासन के प्रति प्रतिबद्धता दोहराई। अधिकारियों के अनुसार, इस मामले में 10 से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर भय और असुरक्षा की भावना अभी भी बनी हुई है।
ब्रसेल्स स्थित इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप (ICG) की एक हालिया रिपोर्ट ने साफ़ कहा है कि भारत में शेख हसीना की मौजूदगी दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव का एक प्रमुख कारण बन चुकी है। रिपोर्ट के मुताबिक, अंतरिम सरकार ने पदभार संभालते ही हसीना के प्रत्यर्पण के लिए दबाव बनाना शुरू किया, लेकिन भारत ने उन्हें लौटाने पर सहमति नहीं दी। ICG का आकलन है कि नई दिल्ली शायद यह संदेश नहीं देना चाहती कि वह संकट के समय अपने सहयोगियों को छोड़ देती है।
यूनुस ने व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह आग्रह भी किया कि शेख हसीना को भारत में रहते हुए बांग्लादेश की राजनीति पर सार्वजनिक बयान देने से रोका जाए। यूनुस का मानना था कि ऐसे बयान ढाका के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में देखे जा रहे हैं। इसके बावजूद, हसीना और अवामी लीग से जुड़े कई नेता कोलकाता और नई दिल्ली से राजनीतिक गतिविधियां संचालित करते रहे, जिससे बांग्लादेश में असंतोष और गहरा हुआ।
हाल ही में शेख हसीना ने यूनुस सरकार को ‘विफल संस्था’ करार देते हुए कहा कि बांग्लादेश में कानून-व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है। उन्होंने साम्प्रदायिक हत्याओं को प्रशासनिक अक्षमता का नतीजा बताया और आरोप लगाया कि अंतरिम सरकार ने चरमपंथियों को सत्ता संरचना में जगह दी, आतंकियों को जेल से रिहा किया और अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी तत्वों को सार्वजनिक जीवन में भूमिका निभाने दी। भारत के साथ रिश्तों में आई गिरावट के लिए भी उन्होंने मौजूदा सरकार को जिम्मेदार ठहराया।
हसीना ने यह भी स्पष्ट किया कि जब तक ढाका में स्वतंत्र न्यायपालिका और वैध सरकार नहीं बनती, वे बांग्लादेश लौटने के बारे में नहीं सोचेंगी। साथ ही, भारत में लगातार शरण और सुरक्षा प्रदान करने के लिए उन्होंने नई दिल्ली का आभार जताया। भारत का पक्ष यह है कि वह अपनी सभ्यतागत और मानवीय परंपरा के तहत संकट में पड़े लोगों को शरण देता है। नई दिल्ली ने बांग्लादेश में हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर चिंता भी सार्वजनिक रूप से व्यक्त की है।
लेकिन इन तमाम राजनीतिक, कूटनीतिक और मानवीय तर्कों के बीच एक मूल प्रश्न अब भी अनुत्तरित है—शेख हसीना भारत के हिंदुओं से माफ़ी क्यों नहीं मांग रहीं? अपने लंबे शासनकाल के दौरान वे बार-बार स्वयं को बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों का रक्षक बताती रहीं, लेकिन वास्तविकता यह है कि मंदिरों पर हमले, ज़मीन हड़पने और लक्षित हिंसा की घटनाएं लगातार होती रहीं। सत्ता में रहते हुए वे इन समुदायों को प्रभावी सुरक्षा देने में असफल रहीं और सत्ता से बाहर होने के बाद भी उन्होंने इस विफलता की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं ली।
आज स्थिति यह है कि दुनिया का कोई भी देश उन्हें शरण देने को आगे नहीं आया और वे एक वर्ष से अधिक समय से हिंदू-बहुल भारत में रह रही हैं। ऐसे में यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है कि क्या भारत के सनातनी हिंदू समाज से माफ़ी मांगना उनकी नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या यह स्वीकारोक्ति उनके लिए सबसे पहला कदम नहीं होना चाहिए?
(लेखक पूर्वी भारत के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
