शशांक शर्मा
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से किस पार्टी को जीत मिली किसे हार की चर्चा से ज्यादा इस बात पर बहस हो कि कांग्रेस पार्टी का क्या हाल हुआ है। केरल, असम और पुडुचेरी में मिली हार से पार्टी के भविष्य को लेकर संदेह उभरने लगा है। 2014 के आम चुनाव के बाद से कांग्रेस पार्टी कुछ को छोड़ दें तो एक के बाद एक चुनाव हार रही है लेकिन पार्टी में इस पर कोई मंथन नहीं हो रहा। क्या कांग्रेस खुद को भारत से मुक्त करती जा रही।
यह चुनाव कांग्रेस पार्टी का आत्मविश्वास लौटाने की संभावना वाला चुनाव था। केरल में प्रत्येक पांच साल में सरकार पलटती रही है, एक बार वामपंथी एलडीएफ गठबंधन तो अगली बार कांग्रेस नेतृत्व वाली यूडीएफ गठबंधन। इस समीकरण के हिसाब से इस बार कांग्रेस गठबंधन के लिए जीत का अवसर था। दूसरी ओर असम एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस पार्टी मजबूत दिख रही थी, जैसे तैसे पिछले चुनाव के बाद भाजपा ने सरकार बनाई थी। यहां सरकार में लौटने का सुअवसर था। पुडुचेरी भी ऐसा केंद्र शासित क्षेत्र है जहां कांग्रेस की स्थिति हमेशा मजबूत रही। परंतु कांग्रेस ने तीनों जगह निराशाजनक प्रदर्शन किया है। पश्चिम बंगाल में और तमिलनाडु में लेफ्ट पार्टियों और डीएमके के साथ गठबंधन कर कांग्रेस चुनाव लड़ी, जिसमें बंगाल में कांग्रेस और वाम गठबंधन की दुर्दशा हो गई।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों के साथ एक सांप्रदायिक पार्टी इंडियन सेकुलर फ्रंट का गठजोड़ बनाया गया था। इस गठजोड़ ने कोशिश की थी कि अगर पिछले विधानसभा चुनाव के वोटबैंक को बनाए रखकर मुस्लिम वोटबैंक को अपने साथ कर सकें तो बेहतर स्थिति में आ सकते हैं। लेकिन चुनाव परिणाम में स्थिति बद से बदतर होती दिख रही है। जहां कांग्रेस और वाम गठबंधन ने 2016 के चुनाव में 77 सीटों। पर जीत हंसी की थी, इस बार तो एक सीट पाने के लाले पड़ते दिखे। 1952 के पहले चुनाव से 2011 तक केवल कांग्रेस और वाममोर्चा ने ही बंगाल में अलग अलग शासन किया। 1952 से 1977 तक ज्यादातर कांग्रेस पार्टी सत्ता में रही वहीं 1977 से 2011 तक लगातार वाममोर्चा का राज रहा। ऐसी दोनों दलों का गठबंधन एक सीट पर भी न जीत सके इसे किसी राज्य में राजनीतिक पार्टी के पतन की पराकाष्ठा न कहें तो क्या कहें?
वैसे बंगाल के लिए कहा जा रहा है कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस पार्टी ने गंभीरता से चुनाव ही नहीं लड़ा, चलिए मान लेते है फिर असम और केरल में पराजयवका क्या बहाना है? असम में तो कांग्रेस की अगुवाई में गठबंधन का बेड़ागर्क कांग्रेस के कारण हुआ। 126 में 91 सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ी, बाकी बची 35 सीटों पर यूएआईडीएफ, सीपीआईएम व अन्य ने चुनाव अपने उम्मीदवार उतारे। इसमें कांग्रेस 91 में केवल 20 21 सीटें जीत सकी जबकि उनके घटक दल 35 में से आधे पर जीत हासिल की। यही हश्र केरल में यूडीएफ गठबंधन का हुआ। याद होगा बिहार विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी के खराब प्रदर्शन के कारण यूपीए गठबंधन सरकार बनाने से चूक गई थी। विचारणीय है देश की सबसे पुरानी, सबसे बड़ी, अखिल भारतीय होने का दावा करने वाली, लंबे समय तक देश और राज्यों में शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी अब क्षेत्रीय दलों पर बोझ बनती जा रही है।
अब यहां से कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता क्या है? क्या कांग्रेस पार्टी के आला नेता पार्टी की स्थिति पर चिंतन करेंगे? क्या पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तय करने के साथ कार्यसमिति, प्रादेशिक इकाइयों को मजबूत करने पर कोई निर्णय होगा? क्या पार्टी के असंतुष्ट नेता एक बार फिर हाईकमान पत्र लिखकर अपनी चिंता जताएंगे? या असंतुष्ट समूह अपनी गतिविधि बढ़ाएंगे? सवाल को पिछले कई सालों से अनेक उठ रहे हैं लेकिन उनका कोई जिम्मेदारी से जवाब देने कांग्रेस पार्टी तैय्या नहीं है।
(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार है। ये लेखक के अपने विचार हैं)