आर कृष्णा दास
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज सेना के जवानों के साथ दिवाली मनाने के लिए जम्मू और कश्मीर में नौशेरा सेक्टर का दौरा किया और भारत के सर्वोच्च सैन्य अलंकरण परमवीर चक्र के देश के पहले जीवित विजेता लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे के योगदान को याद किया।
लेफ्टिनेंट आर आर राणे, जैसा कि प्रधानमंत्री ने संबोधित किया, का जन्म 26 जून 1918 को कर्नाटक के चेंदिया गांव में एक कोंकणी भाषी मराठा परिवार में हुआ था। वह एक पुलिस कांस्टेबल राघोबा पी राणे के बेटे थे। राणे ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा दी थी। वह युद्ध के बाद की अवधि के दौरान सेना में बने रहे और 15 दिसंबर 1947 को भारतीय सेना के कोर ऑफ इंजीनियर्स के बॉम्बे सैपर्स रेजिमेंट में नियुक्त हुए।
रामा राघोबा राणे लगातार सेना को अपनी बहादुरी, अपनी नेतृत्व क्षमता तथा अपने चरित्र से प्रभावित करते रहे जिसके फलस्वरूप इन्हें सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशंड ऑफिसर बनाकर जम्मू कश्मीर के मोर्चे पर तैनात कर दिया गया। पाकिस्तान के जवाबी हमले को नाकाम करते हुए नौशेरा की फ़तह के बाद भारतीय सेना ने अपनी नीति में परिवर्तन किया और यह तय किया कि वह केवल रक्षात्मक युद्ध नहीं लड़ेगी बल्कि खुद भी आक्रामक होकर मोर्चे जीतेगी और इसी से दुश्मन का मनोबल टूटेगा। इस क्रम में सबसे पहले 18 मार्च 1948 को 50 पैरा ब्रिगेड तथा 19 इंफेंट्री ब्रिगेड ने झांगार पर दोबारा जीत हासिल की थी। उसके बाद भारतीय सेना अपनी इसी नीति पर डटी रही थी। इसके बाद यह निर्णय हुआ था कि दुश्मन पर दबाव बनाए रखते हुए बारवाली रिज, चिंगास तथा राजौरी पर क़ब्ज़ा जमाया जाय। इस काम के लिए नौशेरा-राजौरी मार्ग का साफ होना बहुत ज़रूरी था। एक तो भौगोलिक रूप से यहाँ रास्ता पहाड़ी रास्तों की तरह संकरा तथा पथरीला था, दूसरे इस पर दुश्मन ने बहुत सी ज़मीनी सुरंगें भी बना रखीं थीं। कूच करने के पहले ज़रूरी था कि उन सुरंगों को नाकाम करके, सभी तरह के अवरोध वहाँ से हटा दिए जाएँ।
8 अप्रैल 1948 को ऐसे ही एक मोर्चे पर सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला। 8 अप्रैल 1948 को यह काम बॉम्बे इंजीनियर्स के इन्हीं सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे को सौंपा गया। दिन में काम शुरू हुआ और शाम तक रिज को फ़तह कर लिया गया। दुश्मन ने इस हार पर अपना जवाबी हमला किया लेकिन उसे नाकाम कर दिया गया। इस सफलता के लिए रामा राघोबा की विशेष बहादुरी का ज़िक्र किया जा सकता है। 8 अप्रैल से ही, जैसे ही रामा राघोबा को काम शुरू करना था, दुश्मन की भारी गोलाबारी तथा बमबारी शुरू हो गई थी। इस शुरुआती दौर में ही रामा राघोबा के दो जवान मारे गए और पाँच घायल हो गए। घायलों में रामा राघोबा स्वयं भी थे। इसके बावजूद रामा राघोबा अपने टैंक के पास से हटे नहीं और दुश्मन की मशीनगन तथा मोर्टार का सामना करते रहे। रिज जो जीत भले ही लिया गया था, लेकिन राघोबा को पूरा एहसास था कि दुश्मन वहाँ से पूरी तरह साफ़ नहीं हुआ है। इसके बावजूद, रामा ने अपने दल को एकजुट किया और घुमाव बनाते हुए अपने टैंकों के साथ वह आगे चल पड़े। रात दस बजे वह एक-एक जमीनी सुरंग साफ करते हुए आगे बढ़ते रहे, जबकि दुश्मन की तरफ से मशीनगन लगातार गोलियों की बौछार कर रही थी।
अगले दिन 9 अप्रैल को फिर एकदम सुबह से ही काम शुरू हो गया जो शाम तीन बजे तक चलता रहा। इस बीच एक घुमावदार रास्ता तैयार था, जो सुरक्षित था और इससे टैंक आगे जा सकते थे। जैसे-जैसे सशस्त्र दल आगे बढ़ा, रामा राघोबा अगली पंक्ति में उनकी अगुवाई करते चले। रास्ते में फिर एक अवरोध चीड़ के पेड़ को गिरा कर बनाया गया था। राघोबा फुर्ती से अपने टैंक से कूद कर नीचे आए और पेड़ को धमाके से उड़ाकर उन्होंने रास्ता साफ़ कर लिया। क़रीब तीन सौ गज़ आगे फिर वहीं नज़ारा था। उस समय शाम ढल रही थी और रास्ता ज्यादा घुमावदार होता जा रहा था। अगली बाधा एक उड़ा दी गई पुलिया ने खड़ी की थी। राघोबा अपने दल के साथ इसे भी दूर करने तत्परता से जुट गए। तभी यकायक दुश्मन ने मशीनगन से गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं लेकिन यहाँ भी राघोबा ने बेहद चतुराई से अपना रास्ता दूसरी तरफ से काटा और निर्बाध आगे बढ़ गए। इस तरह सशस्त्र सेना ने न जाने कितने मार्ग अवरोधों का सामना किया और सभी को रामा राघोबा के दल ने बहादुरी और चतुराई से निपटा डाला।
शाम सवा छह का समय हो रहा था। रोशनी तेज़ी से घट रही थी और सामने एक बड़ी बाधा मुँह बाए खड़ी थी। चीड़ के पाँच बड़े पेड़ों के सहारे मार्ग अवरोध बनाया गया था। उसके नीचे जमीनी सुरंग थीं, जिसमें बारूदी विस्फोट का पूरा सामान था और उसके दोनों ओर से मशीनगर की लगातार गोलाबारी थी जिससे इस अवरोध को दूर कर पाना सरल नहीं लग रहा था। रामा राघोबा इस बाधा को भी हटाने के लिए तत्पर थे लेकिन सशस्त्र टुकड़ी के कमाण्डर को यही ठीक लगा कि टुकड़ी का रास्ता बदल कर कहीं सुरक्षित ठिकाने पर ले जाया जाए। इस निर्णय के साथ रात बीती लेकिन रामा राघोबा को चैन नहीं था। वह सुबह पौने पांच बजे से ही उस मार्ग अवरोध को साफ़ करने में लग गए। दुश्मन की ओर से मशीनगन का वार जारी था। उसके साथ एक टैंक भी वहाँ तैनात हो गया था लेकिन रामा राघोबा का मनोबल भी कम नहीं था। वह इस काम में लगे ही रहे और सुबह साढ़े छह बजे, करीब पौने दो घण्टे की मशक्कत के बाद उन्होंने वह रास्ता साफ़ कर लिया और आगे बढ़ने की तैयारी शुरू हुई।
अगला हज़ार गज़ का फासला जबरदस्त अवरोधों तथा विस्फोटों से ध्वस्त तट-बंधों से भरा हुआ था। इतना ही नहीं, आगे का पूरा रास्ता मशीनगन की निगरानी में था लेकिन रामा राघोबा असाधारण रूप से शांत तथा हिम्मत से भरे हुए थे। उनमें जबरदस्त नेतृत्व क्षमता थी। वह अपनी टुकड़ी का हौसला बढ़ने में प्रवीण थे और अपनी टुकड़ी के सामने अपनी बहादुरी एवं हिम्मत की मिसाल भी रख रहे थे, जिसके दम पर उनका पूरा अभियान उसी दिन सुबह साढ़े दस बजे तक पूरा हो गया। सशस्त्र टुकड़ी को तो निकलने का रास्ता राघोबा ने दे दिया, लेकिन वह थमे नहीं। सशस्त्र टुकड़ी तावी नदी के किनारे रुक गई लेकिन राघोबा का दल प्रशासनिक दल के लिए रास्ता साफ़ करने में जुटा रहा। राघोबा के टैंक चिंगास तक पहुँच गए। रामा को इस बात का पूरा एहसास था कि रास्तों का साफ़ होना जीत के लिए बहुत ज़रूरी है, इसलिए वह अन्न-जल के, बिना विश्राम किये रात दस बजे तक काम में लगे रहे और सबेरे छह बजे से फिर शुरू हो गए। 11 अप्रैल 1948 को उन्होंने ग्यारह बजे सुबह तक चिंगास का रास्ता एक दम साफ़ और निर्बाध कर दिया। उनका काम अभी भी पूरा नहीं हुआ था। उसके बाद भी आगे का रास्ता उनको काम में लगाए रहा। रात ग्यारह बजे जाकर उनका काम पूरा हुआ।
उनके काम से ना केवल पाकिस्तानी सेना के लगभग 500 सैनिक मारे गए और कई अन्य घायल हुए, बल्कि चिंगस और राजौरी क्षेत्र के कई नागरिकों को भी बचाया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले दो वीरों को नमन किया। इनमें ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान और नायक जदुनाथ सिंह राठौर शामिल थे।
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान (15 जुलाई 1912 – 3 जुलाई 1948) 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान कार्रवाई में मारे गए भारतीय सेना के सर्वोच्च रैंकिंग अधिकारी थे। एक मुसलमान के रूप में, उस्मान भारत की समावेशी धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बन गए। भारत के विभाजन के समय उन्होंने कई अन्य मुस्लिम अधिकारियों के साथ पाकिस्तानी सेना में जाने से इनकार कर दिया और भारतीय सेना के साथ काम करना जारी रखा। वह जुलाई 1948 में जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों और मिलिशिया से लड़ते हुए शहीद हो गए। उन्हें वीरता के लिए दूसरे सर्वोच्च सैन्य अलंकरण, महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
जदुनाथ सिंह राठौर, (21 नवंबर 1916 – 6 फरवरी 1948) एक भारतीय सेना के सिपाही थे, जिन्हें 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनके कार्यों के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य अलंकरण परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
सिंह को 1941 में ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल किया गया था और उन्होंने बर्मा में जापानियों के खिलाफ लड़ते हुए द्वितीय विश्व युद्ध में सेवा दी थी। बाद में उन्होंने भारतीय सेना के सदस्य के रूप में 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भाग लिया। 6 फरवरी 1948 को नौशहर के उत्तर में ताइन धार में एक कार्रवाई के लिए, नाइक सिंह को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
सिंह ने नौ सदस्यीय फॉरवर्ड सेक्शन पोस्ट की कमान संभाले हुए थे। हालांकि पाकिस्तानी सेना द्वारा आगे बढ़ाने की तीन प्रयासों को सिंह क्र नेतृत्व वाली चौकी ने विफल कर किया। दूसरे हमले में वह घायल हो गए। एक स्टेन गन के साथ उन्होंने तीसरे हमले के दौरान अकेले दृढ़ संकल्प के साथ लड़ते रहे और हमलावरों को पीछे हटना पड़ा। ऐसा करते हुए जदुनाथ सिंह राठौर शहीद हो गए।