मुलायम सिंह यादव: कांग्रेस के दोस्त या दुश्मन

मुलायम सिंह यादव

आर कृष्णा दास

मुलायम सिंह यादव नहीं रहे। वे एक पहलवान थे जो दंगल में बेहतरीन दांव लगाना जानते थे। 83 वर्षीय समाजवादी नेता राजनीतिक मोर्चे पर भी अपने इस अनुभव का इस्तेमाल करने से नहीं चूके।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए नेता जी कभी दोस्त नहीं रहे। लेकिन कांग्रेस को वे हमेशा कांग्रेस भ्रमित करते रहे, चाहे वह विरोधी के रूप में हो या प्रशंसक के तौर पर। राजनीतिक घटनाओं की श्रृंखला इस बात को सही ठहराती है।

2008 के मध्य में संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के विरोध में वाम दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार लगभग पतन के कगार पर थी। जून में, मुलायम सिंह के भरोसेमंद सहयोगी अमर सिंह ने कोलोराडो के एक अस्पताल से प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के प्रेस सलाहकार संजय बारू को एक संदेश भेजा।  

अमर सिंह ने प्रधानमंत्री के लिए संदेश भेजा कि अमेरिकी काफी मैत्रीपूर्ण हैं और भारत को उनके साथ अच्छे संबंध रखना चाहिए। संदेश सामान्य था लेकिन सत्ता के केंद्र में रहने वालों के लिए यह एक स्पष्ट संकेत था। उन्होंने संकेत के माध्यम से बता दिया था कि समाजवादी पार्टी परमाणु समझौते पर डॉ सिंह का समर्थन करने की इच्छा रखती है।

प्रधानमंत्री ने कथित तौर पर अमर सिंह के साथ बातचीत की। वाम दल तब दंग रह गए जब मीडिया में ऐसी खबरें आईं कि मुलायम सिंह परमाणु समझौते का समर्थन करने पर विचार कर रहे हैं। 25 जून को यूपीए-वाम समिति की बैठक होनी थी, जो सरकार को बचाने के आखिरी प्रयास में से एक था। बैठक से ठीक पहले माकपा महासचिव प्रकाश करात ने मुलायम सिंह से मुलाकात की। लेकिन वह कोई वादा करने से हिचक रहे थे और कहा कि अंतिम फैसला लेने के लिए समाजवादी पार्टी 3 जुलाई को बैठक करेगी।

तब तक अमर सिंह अमेरिका से आ चुके थे। उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की और धर्मनिरपेक्ष कार्ड खेला, जिसमें कहा गया कि धर्मनिरपेक्ष ताकतों में विभाजन देश के लिए हानिकारक होगा।

एक अन्य रणनीति के तहत, मुलायम सिंह और अमर सिंह ने पूर्व राष्ट्रपति और प्रसिद्ध टेक्नोक्रेट डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम से मुलाकात की। बैठक के बाद कलाम ने परमाणु समझौते के समर्थन में बयान जारी किया और यादव से सरकार का समर्थन करने का आग्रह किया।  मुलायम सिंह यादव तो यही चाहते थे और कलाम की अपील की आड़ में वे अपने कैडरों को बता सकते थे कि उन्होंने पाला क्यों बदला।

रणनीति काम कर गई। 22 जुलाई, 2008 को मनमोहन सिंह की सरकार ने सीपीआई (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद पहला विश्वास प्रस्ताव लोकसभा में लाया। यूपीए ने 275 वोटों के साथ विश्वास मत जीत लिए वही विपक्ष को 256 मत मिले। यह मुलायम सिंह के कारण ही संभव हो सका।

हालांकि, 2013 में, यादव ने स्वीकार किया कि उन्होंने परमाणु समझौते का समर्थन करके ‘जीवन भर की भूल’ की थी।

2012 में, कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए मुलायम सिंह पर भरोसा किया। विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ चर्चा के दौरान तृणमूल की ममता बनर्जी ने गुगली खेली और मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम का प्रस्ताव रखा। मुलायम सिंह यादव ने ममता का समर्थन किया जो कांग्रेस को चौंका दिया और उसे शर्मनाक स्थिति में भी डाल दिया।

यह पहली बार नहीं था जब मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस को चकमा दिया था। अप्रैल 1999 में, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनाने में विफल रहे और कांग्रेस ने विपक्षी दलों के समर्थन से दावा पेश किया। सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति नारायणन से मुलाकात की और 272 सांसदों का समर्थन पेश किया जिसमें समाजवादी पार्टी के सदस्य भी शामिल थे। नारायणन ने बहुमत साबित करने के लिए दो दिन का समय दिया। मुलायम सिंह यादव, जिन्होंने पहले समर्थन की पेशकश की थी, ने हाथ खींच लिया।

कांग्रेस सरकार बनाने में विफल रही और 26 अप्रैल, 1999 को लोकसभा भंग कर दी गई।

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