म्यांमार में आंग सान सू की के नेतृत्व वाली नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की जबरदस्त जीत ने देश में पार्टी की सरकार बनाने का रास्ता खोल दिया है। लेकिन क्या सू की को प्राप्त हुए इस ऐतिहासिक जनादेश के बाद वे अपने देश में कोई भारी सुधार कार्यक्रम करने की सोच रही है।
नोबेल पुरस्कार विजेता सू की के लिए, रोहिंग्या संकट से निपटना एक प्रमुख चुनौती होगी, क्योंकि पूर्व में एनएलडी नेता द्वारा मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह के लिए किए गए कार्यों पर उन्हें कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था। अगर वह सुधारों का रास्ता अपनाती है, तो यह रोहिंग्या संकट में सीधे तौर पर शामिल होने वाली सेना के खिलाफ जाएगा।
उन्हें बेनजीर भुट्टो को याद करने की जरूरत है जो एक समय में पाकिस्तान के लिए शांति और समृद्धि की उम्मीद लेकर आयी थी।
जुल्फिकार भुट्टो की बेटी बेनजीर भुट्टो ने सपनों को सच में बदलने के लिए काम किया और उन्होंने पाकिस्तान में बदलाव लाने की कोशिश की।
बेनजीर ने सुधारों, समानता, आर्थिक समृद्धि, विकास में विश्वास किया और वह किसी भी उदारवादी व्यक्ति की तरह, यह विश्वास करती थी कि पाकिस्तान और भारत एक साथ हाथ मिला सकते हैं और दोनो देश साथ मिलकर एक बेहतर भविष्य बना सकते हैं।
वह एक धर्मनिरपेक्ष नेता भी थी और यदि वह जीवित होती, तो पाकिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र की छवि से छुटकारा मिल जाता, हालांकि उनमें अनुभव की कमी थी और वे परवेज मुशर्रफ और सेना के खिलाफ कुछ करने के लिए बहुत कमजोर भी थी। 2008 में उनकी निर्ममता से हत्या कर दी गई थी।
वास्तव में, सू की दूसरी भुट्टो नहीं बनना चाहती हैं। क्योंकि पाकिस्तान की तरह ही, बर्मा के सशस्त्र बल सत्ता के धारक हैं और वे सेना के खिलाफ किसी भी कार्यवाही का विरोध करते हैं। बर्मा से सेना को अलग करने का उनका कोई भी प्रयास उन्हें भुट्टो के भाग्य की तरह मौत के मुंह में ले जाएगा।
सू की जानती हैं कि उनकी शक्ति सीमित है। उनके पिता बर्मा के लोगो के बीच एकता और समृद्धि का प्रतीक हैं और अभी भी बर्मा के लोगो के बीच एक प्रचलित नाम हैं। लेकिन बाद में सेना ने एजेंटों का इस्तेमाल करके उनकी हत्या कर दी, एक ऐसा क्रम जो भुट्टो से मिलता जुलता है।
वास्तव में, सत्ता का असली केंद्र ना तो सू की हैं और ना ही हतिन काव, सत्ता की असली चाबी बर्मा के सेनाप्रमुख मिन आंग ह्लाइंग के पास हैं। मिन और उनके साथी रोहिंग्या के खिलाफ हैं। लेकिन अपने मिशन को पूरा करने के लिए, उन्हें एक लोकतांत्रिक चेहरे के रूप में सू की की आवश्यकता है। देश में 2008 का संविधान इस बात का प्रमाण है जब सू की सिर्फ एक राज्य प्रतिनिधि थी और काव राष्ट्रपति के रूप में एक कठपुतली थे,जबकि मिन के पास अपनी सेना के लिए खर्च करने की पूरी शक्ति थी।
सू की को पता है कि अगर वह सेना का सहयोग नहीं करेगी तो उनका हश्र भी भुट्टो की तरह होगा।
म्यांमार ने रविवार को हुए मतदान में बांग्लादेश में रह रहे 1.1 मिलियन से अधिक रोहिंग्या शरणार्थियों के नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए, जो बौद्ध बहुल देश म्यांमार की सेना के हाथों उत्पीड़न से भाग कर आए थे।
रोहिंग्या ने 1970 के दशक से ही म्यांमार में दशकों से जारी दुर्व्यवहार और आघात को सहन किया है, तब से लेकर अब तक बांग्लादेश में सैकड़ों हजारों रोहिंग्या लोगों ने शरण ली है।
1989 और 1991 के बीच, जब बर्मा का नाम म्यांमार हुआ तब इस दौरान भी सेना के दबाव के चलते लगभग 250000 लोगों ने पलायन किया था।
बांग्लादेश में कुछ साल पहले अगस्त 2017 में देश में जातीय अल्पसंख्यक समूह पर हुई एक सैन्य कार्रवाई के बाद फिर से पलायन शुरू हुआ था।