आर कृष्णा दास
पाकिस्तान भले ही दावा करे कि उसने अफगानिस्तान में तालिबान के अधिग्रहण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन उसका काम केवल तीन शीर्ष आतंकवादी कमांडरों को मुक्त करने तक ही सीमित था; उनमें से एक दोहा वार्ता के मुख्य वार्ताकार थे।
यह पाकिस्तान नहीं था, अमेरिका ने ही अफगानिस्तान से अपनी वापसी की रूपरेखा तैयार की थी। तालिबान या पाकिस्तान भले ही 20 साल बाद अमेरिकी सेना की वापसी के लिए अपनी पीठ थपथपाएं, लेकिन यह सब अमेरिका की सहमति से ही हुआ। दोहा वार्ता के दौरान अमेरिका की वापसी की समय सीमा मई तय की गई थी। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मई तक बलों को वापस नहीं लेने के लिए राष्ट्रपति जो बिडेन की भी आलोचना भी की थी क्योंकि वह यूएस-तालिबान समझौते का हिस्सा था।
जब अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा वार्ता की तैयारी चल रही थी, तालिबान ने पाकिस्तान के जेल में बंद अपने तीन शीर्ष कमांडरों की रिहाई की मांग की थी। अमेरिकी अधिकारियों ने पाकिस्तान से कहा कि वह तदनुसार कार्रवाई करे। अमेरिका के सामने पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए और तीन आतंकियों को छोड़ दिया।
अमेरिकी सीनेटर क्रिस वैन होलेन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी पर पहली सीनेट सुनवाई में कहा कि ट्रम्प प्रशासन ने तालिबान के अफगानिस्तान के अधिग्रहण को सक्षम किया था ना की पाकिस्तान ने जिसकी भूमिका केवल तीन शीर्ष तालिबान कमांडरों को तत्कालीन अमेरिकी सरकार के कहने पर रिहा करना था ताकि अफगान शांति प्रक्रिया आगे बढ़ सके।
जब हॉलन ने पूछा, “क्या यह सच नहीं है कि ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तानी सरकार से उस प्रक्रिया के तहत तीन शीर्ष तालिबान कमांडरों को रिहा करने के लिए कहा था?” विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा: “यह सही है।”
ब्लिंकन ने कहा कि अब्दुल गनी बरादर रिहा किए गए लोगों में से एक थे, जिन्होंने दोहा वार्ता में पूर्व अफगान सरकार को शामिल नहीं करने और 5,000 तालिबान कैदियों को रिहा करने दबाव बनाया था जो बाद में काबुल के अधिग्रहण में शामिल थे।
हैरानी की बात यह है कि जो समझौता हुआ उसके तहत यह अंतिम रूप दिया गया कि अमेरिकी सेना मई तक चली जाएगी और उस पर हमला नहीं किया जाएगा लेकिन अफगान बलों पर हमला करने पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था। वस्तुतः, यह अमेरिका ही था जिसने अफगान बलों पर हमला करने के लिए हरी झंडी दी।